सेव अरावली अभियान’ से X पटा: अरावली पर्वत श्रृंखला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले

 


 

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X परसेव अरावली अभियानतेज़ी से ट्रेंड कर रहा है। इसकी वजह सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला है, जिसने अरावली पर्वत श्रृंखला को लेकर गंभीर चिंताएँ खड़ी कर दी हैं। पर्यावरणविदों और विशेषज्ञों का कहना है कि इस फैसले से अरावली क्षेत्र में खनन, निर्माण और औद्योगिक गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे इस प्राचीन पर्वत श्रृंखला का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है।

 

अरावली पर्वतमाला उत्तर-पश्चिम भारत के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाती है। यह मरुस्थलीकरण को रोकने, भूजल स्तर बनाए रखने, जैव विविधता की रक्षा करने और दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र को प्रदूषण से बचाने में सहायक मानी जाती है। विशेषज्ञों का तर्क है कि यदि कानूनी संरक्षण कमजोर होता है, तो जंगलों की कटाई, अवैध खनन और शहरी विस्तार तेज़ हो सकता है।

 

इसी आशंका के चलते कई पर्यावरण कार्यकर्ता और वैज्ञानिक इस फैसले को अरावली के लिएडेथ वारंटकरार दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो अरावली का पारिस्थितिक तंत्र अपूरणीय क्षति का शिकार हो सकता है। यही वजह है कि लोग सोशल मीडिया के ज़रिए सरकार और न्यायपालिका से अरावली को सख़्त संरक्षण देने की मांग कर रहे हैं।

 

 


दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत प्रणालियों में से एक अरावली पर्वतमाला पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर चर्चा में है। इसकी वजह 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है, जिसमें अदालत ने पर्यावरण मंत्रालय द्वारा तय किए गए नए मानदंड को स्वीकार कर लिया। केंद्र सरकार के इस मानदंड के अनुसार अब केवल वही पहाड़ियाँ अरावली पर्वत श्रृंखला का हिस्सा मानी जाएँगी, जो स्थानीय भू-आकृति से कम से कम 100 मीटर ऊँची हों, या फिर ऐसी पहाड़ियों के समूह हों जो एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर स्थित हों।

 

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों की चिंताएँ बढ़ा दी हैं। उनका कहना है कि इस नए मानक के चलते पारिस्थितिकी की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण अरावली क्षेत्र के कई हिस्से कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकते हैं। इससे दिल्ली सहित आसपास के क्षेत्रों को अधिक कठोर मौसम, बढ़ते प्रदूषण और सूखे जैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।

 

लगभग 700 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वत श्रृंखला लंबे समय से थार रेगिस्तान से आने वाली रेत और धूल को रोकने वाली प्राकृतिक ढाल के रूप में काम करती रही है। यह भूजल पुनर्भरण में मदद करती है और दिल्ली-एनसीआर सहित कई राज्यों में समृद्ध जैव विविधता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार की नई परिभाषा को स्वीकार किए जाने के बाद, जिसमें केवल 100 मीटर से अधिक ऊँचाई वाली पहाड़ियों को ही अरावली माना गया है, सोशल मीडिया पर #SaveAravalli हैशटैग के साथ विरोध तेज़ हो गया है। विशेषज्ञ और पर्यावरण कार्यकर्ता अरावली के व्यापक संरक्षण की माँग कर रहे हैं।

 

नई परिभाषा के अनुसार, “अरावली पहाड़ीवह भू-आकृति होगी जो निर्धारित अरावली जिलों में स्थित हो और जिसकी ऊँचाई स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक हो। वहीं, “अरावली पर्वत श्रृंखलाऐसी दो या अधिक पहाड़ियों का समूह होगी, जो एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर स्थित हों।

 

 

अरावली पर्वत श्रृंखला पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

 

20 नवंबर को दिए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने की तथा जिसमें न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया शामिल थे, ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) के नेतृत्व वाली समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया।

 

शीर्ष अदालत के इस निर्णय के अनुसार अरावली पर्वत श्रृंखला की परिभाषा को सीमित करते हुए केवल उन भू-आकृतियों को अरावली माना जाएगा, जो अपने आसपास के क्षेत्र से 100 मीटर से अधिक ऊँचाई पर स्थित हों।

 

फैसले के अनुसार, केवल वही भू-आकृतियाँ जिन्हें स्थानीय भू-स्तर से 100 मीटर या उससे अधिक ऊँचाई प्राप्त है, अबअरावली पहाड़ियाँमानी जाएँगी। जो पहाड़ियाँ या भू-आकृतियाँ इस 100 मीटर की सीमा से नीचे आती हैं, उन्हें खनन प्रतिबंधों से बाहर कर दिया गया है। वहीं, दो या अधिक पहाड़ियों को तभीअरावली पर्वत श्रृंखलाका हिस्सा माना जाएगा, जब वे एक-दूसरे से 500 मीटर के भीतर स्थित हों।

 

सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं की एक समान परिभाषा को स्वीकार करते हुए दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में फैले अरावली क्षेत्रों में विशेषज्ञों की रिपोर्ट आने तक नए खनन पट्टों (माइनिंग लीज़) को देने पर रोक भी लगाई है। हालांकि, विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि परिभाषा में इस बदलाव से अरावली की लगभग 60 प्रतिशत प्राचीन पर्वत श्रृंखला खनन के लिए खुल सकती है, जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया (TOI) की एक रिपोर्ट में बताया गया है।

 

 

अरावली पर्वत श्रृंखला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विशेषज्ञ क्या कह रहे हैं और क्यों है चिंता?

 

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अरावली पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं में सतत खनन (sustainable mining) को अनुमति देने और अवैध खनन रोकने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की सिफारिशों को भी स्वीकार किया। अदालत ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे अरावली परिदृश्य में ऐसे क्षेत्र पहचानें जहां खनन अनुमत हो, और साथ ही उन क्षेत्रों की पहचान करें जो पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील, संरक्षण-आवश्यक और पुनर्स्थापन प्राथमिकता वाले हैं। इन क्षेत्रों में खनन या तो पूरी तरह प्रतिबंधित होगा या केवल असाधारण और वैज्ञानिक रूप से औचित्यपूर्ण परिस्थितियों में ही अनुमति दी जाएगी।

 

विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक की बचत को लेकर बहस पैदा कर रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र सरकार की 100 मीटर की परिभाषा को अपनाना और सतत खनन को अनुमति देना राजस्थान की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला के लिए "डेथ वारंट" जैसा है।

 

अरावली को उत्तर भारत की "हरी फेफड़े" कहा जाता है। यह क्षेत्र पर्यावरण सुरक्षा में अहम भूमिका निभाता है और कई प्रमुख नदियों जैसे चंबल, साबरमती और लूनी के लिए प्राकृतिक जल भंडारण प्रणाली का काम करता है।

 

हरजीत सिंह, सतत संपदा क्लाइमेट फाउंडेशन के संस्थापक निदेशक, ने कहा कि केवल 100 मीटर से अधिक ऊँचाई वाली पहाड़ियों को ही 'अरावली' मानने का फैसला उत्तर भारत की जीवनरेखा को मिटा देगा। उनका कहना है कि सतत खनन के नाम पर जमीन पर यह "डायनामाइट, सड़कें और गड्ढे" बनेंगे जो तेंदुओं के मार्ग, गांव की आम भूमि और दिल्लीएनसीआर के आखिरी हरे-भरे क्षेत्र को नुकसान पहुंचाएंगे।

 

राजेंद्र सिंह, जिन्हें "भारत के वॉटरमैन" के नाम से जाना जाता है, ने चेतावनी दी कि यदि यह निर्णय लागू होता है, तो अरावली का केवल 7–8 प्रतिशत ही बचेगा।

 

जायेश जोशी, पर्यावरण कार्यकर्ता, ने कहा कि पहले चिंता आदिवासी समुदायों की होनी चाहिए जो हजारों सालों से अरावली पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं।

 

प्रदीप पूनिया, अन्य कार्यकर्ता, ने चेतावनी दी कि खनन के विस्तार से केवल पहाड़ियाँ बल्कि कृषि, वन्यजीवन और अभयारण्यों को भी खतरा होगा।

 

राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने केंद्र से अरावली की परिभाषा पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया और चेतावनी दी कि पर्वत श्रृंखला को किसी भी तरह का नुकसान उत्तर भारत के पारिस्थितिक भविष्य के लिए गंभीर खतरा है। उन्होंने ‘#SaveAravalli’ अभियान का समर्थन करते हुए अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल चित्र को बदल दिया। गहलोत ने कहा, “अरावली को केवल ऊँचाई या मापदंड से नहीं आंकना चाहिए, इसे इसके पारिस्थितिक महत्व के आधार पर परखा जाना चाहिए। revised definition ने उत्तर भारत के भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। जब अरावली खड़ी होने के बावजूद प्रदूषण स्तर चिंताजनक हैं, तो इसके बिना स्थिति और अधिक भयावह होगी।

 

अरावली क्यों महत्वपूर्ण है?

 

लगभग 700 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वत श्रृंखला थार रेगिस्तान से आने वाली रेत और धूल को रोकने वाला प्राकृतिक बाधा के रूप में काम करती है।

 

यह भूजल पुनर्भरण में मदद करती है और दिल्ली-एनसीआर सहित कई राज्यों में जैव विविधता बनाए रखती है।

 

अरावली इंडो-गंगा मैदानों में मरुस्थलीकरण को रोकने में अहम भूमिका निभाती है और थार रेगिस्तान के पूर्व की ओर फैलने को रोकती है।

 

यह जलवायु स्थिरीकरण, जैव विविधता संरक्षण और जल संसाधनों के पुनर्भरण के लिए एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक ढाँचा प्रदान करती है।

 

विशेषज्ञों का मानना है कि यदि इस निर्णय के आधार पर खनन गतिविधियाँ बढ़ती हैं, तो अरावली का पारिस्थितिक संतुलन गंभीर रूप से प्रभावित होगा और उत्तर भारत के पर्यावरण और जल सुरक्षा को गंभीर खतरा होगा।

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